ज़िंदगी में इतना ड्रामा क्यों? एक दिव्य निर्देशक की दृष्टि से जीवन को समझना

 

ज़िंदगी में इतना ड्रामा क्यों? एक दिव्य निर्देशक की दृष्टि से जीवन को समझना

ज़िंदगी में इतना ड्रामा क्यों? एक दिव्य निर्देशक की दृष्टि से जीवन को समझना


क्या आपने कभी सोचा है, "अगर भगवान इस पूरे ब्रह्मांड में हैं और हम सबके भीतर हैं, तो फिर ये सब दुख-दर्द, संघर्ष, भावनात्मक उथल-पुथल क्यों?"

मैंने भी यही सवाल खुद से कई बार पूछा। लेकिन एक साधारण बातचीत और एक नए दृष्टिकोण ने मेरी सोच बदल दी।


जीवन एक फ़िल्म की तरह: एक दिव्य पटकथा

सोचिए आप एक फ़िल्म देख रहे हैं। कहानी शुरू होती है एक लड़के और एक लड़की से। वे मिलते हैं, प्यार करते हैं, शादी करते हैं, बच्चे होते हैं… और फ़िल्म खत्म।

कोई ट्विस्ट नहीं, कोई संघर्ष नहीं, कोई भावनात्मक उतार-चढ़ाव नहीं।

क्या आप ऐसी फ़िल्म फिर कभी देखना चाहेंगे?

शायद नहीं।

मैंने महसूस किया है कि जो हमें सबसे ज़्यादा छूता है, जो दिल में बस जाता है वो होता है संघर्ष के बाद मिली जीत, बिखराव के बाद जुड़ाव। नायक को पहले गिरना ही पड़ता है, तभी उसका उठना मायने रखता है।

हमारी ज़िंदगी भी कुछ ऐसी ही है।


विपरीत मूल्य: विरोध नहीं, पूरक हैं

जीवन को केवल सुख या केवल दुःख का संगम नहीं बनाया गया है। यह दोनों के बीच संतुलन है जैसे दिन और रात, सफलता और असफलता।

मेरे अपने जीवन में, जो क्षण सबसे कठिन थे वो ही मुझे सबसे ज़्यादा सिखा गए। दुख ने करुणा दी, असफलता ने दृढ़ता सिखाई।

हम अनुभव के बिना गहराई नहीं समझ सकते। और अंधकार के बिना प्रकाश का मूल्य नहीं समझ सकते।


कर्म मंच: पटकथा किसकी है?

जब मैंने जीवन की घटनाओं को एक “दिव्य निर्देशक” की दृष्टि से देखना शुरू किया, सब कुछ बदल गया।

हर व्यक्ति एक किरदार है, हर परिस्थिति एक सीन। कोई हीरो है, कोई विलेन। लेकिन सभी ज़रूरी हैं इस कहानी में।

मंच से उतरना मृत्यु नहीं, बस एक ब्रेक है। आत्मा कहीं नहीं जाती वो सिर्फ़ अगले दृश्य के लिए तैयार हो रही होती है।


"मेरे साथ ही क्यों?" का बड़ा उत्तर

जब मुश्किलें आती हैं, तो यह सवाल स्वाभाविक है: "मेरे साथ ही क्यों?"

लेकिन अगर हम निर्देशक की नज़र से देखें, तो समझ आता है कि हमारी भूमिका भी एक उद्देश्य से चुनी गई है। और तब हम शिकायत करना छोड़, कहानी की सुंदरता को देखना शुरू करते हैं।


प्रक्रिया पर भरोसा करना

हमें शायद कभी पूरी कहानी न समझ आए। लेकिन शायद यही जीवन का रहस्य है। हमें सब कुछ जानने के लिए नहीं, जीने के लिए भेजा गया है।

हर दृश्य में अपना सर्वश्रेष्ठ देना ही हमारा काम है। बाकी निर्देशक पर छोड़ दीजिए।


अंतिम विचार

यह सोच दर्द को मिटाती नहीं, लेकिन शांति ज़रूर देती है। यह अनिश्चितता को खत्म नहीं करती, पर भरोसा ज़रूर बढ़ाती है।

आप इस नाटक के दर्शक नहीं, मुख्य किरदार हैं।

तो भूमिका निभाइए पूरा मन लगाकर, पूरी सच्चाई से और पूरी आत्मा से।


यह लेख व्यक्तिगत अनुभव और आध्यात्मिक चिंतन पर आधारित है। आशा है यह दृष्टिकोण आपको भी अपनी जीवन यात्रा को एक नए अर्थ में देखने में मदद करेगा।  

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